शिरीष के फूल पाठ के प्रश्न उत्तर | Shirish KE Phool Class 12 Question Answer

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पुस्तक:आरोह भाग दो
कक्षा:12
पाठ:14
शीर्षक:शिरीष के फूल
लेखक:हजारी प्रसाद द्विवेदी

NCERT Solution For Class 12 Hindi Aroh Chapter 14 Shirish KE Phool

प्रश्न 1: जाति प्रथा को श्रम विभाजन का ही एक रूप न मानने के पीछे आंबेडकर के क्या तर्क हैं?

उत्तर- जाति प्रथा श्रम विभाजन का नहीं, बल्कि श्रमिक विभाजन का आधार बना हुआ है; क्योंकि जाति प्रथा के कारण व्यक्ति को अपनी रुचि, कुशलता और योग्यता के आधार कार्य चुनने का अधिकार नहीं है। यदि किसी कारण वश व्यक्ति को अपना कार्य (पेशा) बदलने की आवश्यकता हो, तो जाति प्रथा के कड़े और कठोर नियम इसकी इजाजत नहीं देते। व्यक्ति पूर्व निर्धारित कार्य को अरुचि के साथ विवशता वश करते हैं, जिससे उनकी पूरी क्षमता और योग्यता के साथ न्याय नहीं हो पाता। अतः हम कह सकते हैं कि जाति प्रथा श्रम विभाजन का एक रूप नहीं है, क्योंकि यहाँ किसी भी व्यक्ति को उसकी योग्यता और कार्यकुशलता के आधार पर कार्य करने की छूट नहीं दी जाती।

प्रश्न 2: जातिप्रथा भारतीय समाज में बेरोजगारी व भुखमरी का भी एक कारण कैसे बनती रही है? क्या कह स्थिति आज
भी है?

उत्तर- जाति प्रथा समाज में बेरोजगारी और भूखमरी का कारण बनी हुई है। कुछ ऐसे व्यवसाय हैं, जिन्हें हिन्दू लोग घृणित कार्य मानते हैं। हिन्दू लोग ऐसे कार्य को त्याज्य मानते हैं और प्रत्येक व्यक्ति ऐसे व्यवसायों से भागना व छोड़ना चाहता है जो कि बेरोजगारी का एक कारण बनता है। दूसरा जाति प्रथा के कारण हिन्दू समाज में अपना पेशा (व्यवसाय) बदलना लगभग असंभव है क्योंकि प्रत्येक जाति के लिए कोई न कोई कार्य निश्चित किया हुआ है। कई बार यह स्थिति उत्पन्न हो जाती है कि जाति पर आधारित कार्य व्यक्ति करना नहीं चाहता और दूसरा कोई कार्य करने की छूट जाति प्रथा नहीं देती, तो उस व्यक्ति के लिए जातिप्रथा बेरोजगारी और भूखमरी का कारण बन जाती है।

प्रश्न 3: लेखक के मत से ‘दासता’ की व्यापक परिभाषा क्या है?

उत्तर- दासता का तात्पर्य केवल कानूनी पराधीनता नहीं है। दासता समाज में व्यवहारिक रूप धारण किए हुए है। कानूनी पराधीनता के न होने पर भी कुछ व्यक्तियों को दूसरे लोगों द्वारा निर्धारित व्यवहार एवं कर्तव्यों का पालन करता पड़ता है। लोगों को अपनी इच्छा के विरूद्ध पेशे अपनाने पड़ते हैं। उन्हें अपनी इच्छानुसार व्यवसाय चुनने की स्वतन्त्रता नहीं होती। भले ही वे लोग भूख से मर जाए लेकिन उक आफ्नो व्यवसाय बदलने तक की मनाही होती है। दासता का यह घृणित रूप हमारे समाज में कानूनी रूप से अवैध होते हुए भी: आज विद्यमान है।

प्रश्न 4: शारीरिक वंश-परंपरा और सामाजिक परंपरा की दृष्टि से मनुष्यों में असमानता संभावित रहने के बावजूद डॉ: अम्बेडकर ‘समता’ को एक व्यवहार्य सिद्धांत मानने का आग्रह क्यों करते हैं? इस के पीछे उनके क्या तर्क है?

उत्तर- प्रत्येक व्यक्ति का जन्म एक समान परिस्थितियों में नहीं होता। प्रत्येक व्यक्ति की शारीरिक वंश परम्परा और परम्परागत रूप से प्राप्त माता-पिता को शिक्षा व सम्पनि भिन्न-भिन्न होना स्वाभाविक है। एक व्यक्ति का जन्म अभावा दुखों और सभी प्रकार के साधनों के अभाव में होता है, जबकि दूसरे का जन्म सभी प्रकार की सुख सुविधाओं में होता है। तो इन दोनों स्थितियों में जन्म लेने वाले व्यक्ति किसी भी प्रकार समान नहीं कहे जा सकते। इस आधार पर व्यक्ति व्यक्ति में भिन्नता करना ठीक नहीं है, क्योंकि इन परिस्थितियों में व्यक्ति का अपना कोई प्रयास या योगदान नहीं है। मनुष्य को अपने प्रयासों (प्रयत्नों) से ही छोटा या बड़ा माने जाने का अधिकारी होना चाहिए। बल्कि छोटा-बड़ा नहीं समानता का अधिकार होना चाहिए। उन्हें समान अवसर और समान व्यवहार उपलब्ध हो, जिससे प्रत्येक व्यक्ति अपनी अधिकतम शक्ति का उपयोग समाज के लिए कर सके। एक राजनीतिज्ञ सभी लोगों से समान व्यवहार करता है वह इसलिए नहीं कि सब लोग समान होते हैं बल्कि इसलिए कि समाज का वर्गीकरण करना उसके लिए हितकर नहीं है, न ही संभव है। जब एक राजनीतिज्ञ ‘समता’ का भाव रख सकता है: (भले ही विवशता में) तो हमारा समाज भी समता को व्यवहारिक रूप में ला सकता है और समाज में समानता का भाव भरकर उसे व्यवहार्य बना सकता है।

प्रश्न 5: सही में डॉक्टर आंबेडकर ने भावनात्मक समत्त्व की मानवीय दृष्टि के तहत जातिवाद का उन्मूलन चाहा है, जिस की प्रतिष्ठा के लिए भौतिक स्थितियों और जीवन सुविधाओं का तर्क दिया है। क्या इस से आप सहमत हैं?

उत्तर- डॉक्टर आंबेडकर ने जातिवाद के उन्मूलन का आधार भावनात्मक स्तर को बताया है। हमारे समाज की सबसे बड़ी विडम्बना है कि सुविधा संपन्न होना ही उत्तम व्यवहार’ का हकदार माना जाता है। यदि समाज के सभी वर्गों को सुविधा संपन्न बना दिया जाए तो उनमें भावनात्मक समता तथा मान्यता पैदा जा सकती है। एक राजनीतिज्ञ समय और जानकारी के अभाव में समाज के प्रत्येक वर्ग से समान व्यवहार करने के लिए बाध्य होता है। एक राजनीतिज्ञ की तरह समाज के प्रत्येक वर्ग को समान रूप से भौतिक स्थितियाँ और सुख सुविधाएँ प्रदान कर दी जाए तो भावनात्मक स्तर पर ही सही जातिवाद का उन्मूलन सम्भव है। भौतिक और सुख-सुविधाओं के अभाव में व्यक्ति के लिए समान व्यवहा करना असम्भव है, क्योंकि साधनहीनता व्यक्ति में कुंठा और हीनता की भावना को अधिक बढ़ाकर उसे समाज से अलग-थलग रहने को विवश करती है।

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प्रश्न 6: आदर्श समाज के तीन तत्वों में से एक ‘भ्रातृता’ को रखकर लेखक ने अपने आदर्श समाज में स्त्रियों को भी सम्मिलित किया है अथवा नहीं? आप इस ‘भ्रातृता’ शब्द से कहाँ तक सहमत हैं? यदि नहीं तो आप क्या शब्द उचित समझेंगे / समझेंगी?”

उत्तर- भ्रातृता शब्द संस्कृत के शब्द ‘भ्रातृ’ में ‘ता’ प्रत्यय लगाने से बना है। भ्रातृ शब्द का अर्थ है भाई, ‘ता’ प्रत्यय लगाकर लेखक ने इसको भाईचारे के अर्थ में इसका प्रयोग किया है। भाई चारा एक व्यापक शब्द है, जिसमें भाई-बहन को अलग करके देखना मुश्किल है। यद्यपि भ्रातृ पुल्लिंग शब्द है, लेकिन भाईचारे के अर्थ की व्यापकता में इसे केवल भाई अर्थात् कंवल पुरुष के लिए प्रयोग नहीं किया जा सकता, उसमें स्त्रियाँ स्वत: ही शामिल हो जाती हैं। लेखक ने भातृता शब्द से पहले ‘समता’ शब्द का प्रयोग किया है, जिसमें लिंग-भेद के लिए कोई स्थान ज्ञात करना मूर्खता होगी। समता शब्द भ्रातृता की व्यापकता को और अधिक बढ़ा देता है। शब्द का अर्थ और उसकी महता उसके प्रयोग पर अधिक आधारित होता है। फिर भी लेखक यदि ‘भ्रातरी’ शब्द का प्रयोग करता तो अधिक तर्क संगत होता भ्रातरौ शब्द का अर्थ होता है भाई और बहन इस शब्द में लिंग भेद की गुंजाइश नहीं बचती।

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