कवितावली, लक्ष्मण मूर्च्छा और राम विलाप पाठ सारांश | Class 12 Summary in Hindi

NCERT Solution:- Kavitavali Uttarakhand and Lakshaman Murcha Aur Ram Ka Vilap Poem Class 12th Chapter 8 of Aaroh Part-II Book has been developed for Hindi Course. We are going to show Summary & Saransh with Pdf. Our aim to help all students for getting more marks in exams.

पुस्तक:आरोह भाग दो
कक्षा:12
पाठ:8
शीर्षक :कवितावली, लक्ष्मण मूर्च्छा और राम विलाप
लेखक:तुलसीदास

Kavitavali Uttarakhand and Lakshaman Murcha Aur Ram Ka Vilap Class 12th Explanation & Vyakhya In Hindi

किसबी, किसान-कुल, बनिक भिखारी, भाट,
चाकर, चपल नट, चोर, चार, चेटकी
पेटको पड़त, गुन गढ़त, चढ़त गिरि,
अटत गहन-गन अहन अखेटकी ।।
ऊँचे-नीचे करम, धरम-अधरम करि,
पेट ही को पचत, बेचत बेटा-बेटकी।
‘तुलसी’ बुझाई एक राम घनस्याम ही तें,
आगि बड़वागिने बड़ी है आग पेटकी ।।

प्रसंग:- प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी हिन्दी की पाठ्य-पुस्तक ‘आरोह’ में संकलित कविता ‘कवित्त व सर्वया से उत है। इसके रचयिता ‘गोस्वामी तुलसीदास’ जो हैं। इनकी प्रमुख रचना ‘कवितावली’ से इसे मूल रूप धारण किया गया है। इस कवित में तुलसी जी ने समाज में व्यापक विभिन्न वर्गों की स्थिति का वर्णन किया है। वह कहते हैं कि हर वर्ग पेट की आग के लिए अच्छे-बुरे कार्य करता है।

व्याख्या:- तुलसी दास जी ने अपनी इस काव्य कला के द्वारा मुगल काल के उस समय की सामाजिक स्थिति का वर्णन किया है जब सभी श्रम जीवी, किसान वर्ग बनिया वर्ग, भिखारी, भाट, नौकर, चंचल नट वर्ग, गा-बजाकर गुजारा करने वाले लोग तथा इन सभी परिश्रमी वर्गों के साथ चोर और जादूगर आदि भी भूख को मिटाने के लिए अर्थात अपनी जीविका कमाने हेतु ही पढ़ते-लिखते हैं. अपने अन्दर कुशलता का गुण उत्पन्न करते हैं, सभी अपनी जीविका के लिए ही पहाड़ पर चढ़ने के समान कठिन कार्यों को करते हैं। जिस प्रकार ये सब वर्ग पेट की खातिर भटकते रहते हैं उसी प्रकार शिकारी भी गहरे वन में दिन भर मारे-मारे घूमते रहते हैं।

तुलसीदास जी कहते हैं कि सभी वर्ग अपने-अपने तरीके से धन-वैभव कमाने में लगे हुए हैं। ये वर्ग न जाने कितने ऊँचे-नीचे कर्म करते हैं, धर्म-अधर्म के कार्य करते हैं अर्थात् पेट के लिए पैसा कमाने के लिए अत्याचार, अन्याय, अनैतिक से भरपूर अनेकों कार्य करते रहते हैं। पेट की भूख को मिटाने के लिए ही ये लोग अपनी सन्तान, अपने बेटे, बेटियों तक को बेचने का नीच कार्य भी कर बैठते हैं।’तुलसी’ जी कहते हैं कि यह पेट की आग इतनी भयंकर व तेज है कि इसके सामने समुद्र के अन्दर लगी अग्नि भी इसके सामने तुच्छ पड़ जाती है। तुलसी जो इस भयंकर अग्नि से छुटकारा पाने के लिए एक राम के नाम का सहारा लेने का ही सुझाव देते हैं। उनके अनुसार सिर्फ घनश्याम वहीं राम ही है जो इस पेट को अग्नि का संहार कर सकते हैं। जो मनुष्य राम का नाम सच्ची भक्ति व श्रद्धा के साथ लेता है वह हमेशा ही समाज के इन दुःखों व मोह माया को छोड़ सुखमय जीवन व्यतीत करता है।

काव्य सौन्दर्य

(क) भाव पक्ष

• तुलसी जी ने समाज की सबसे बड़ी विडम्बना ‘पेट की आग’ को सभी वर्गों के माध्यम से बड़े ही सरल तरीके से उठाकर, भक्ति बल के द्वारा राम भक्ति करके इससे छुटकारा पाने का सरल सुझाव दिया है।
• तुलसी ने समाज के आजीविका कमाने व पेट की आग के द्वारा भक्तिभाव को किया है।
• अभिधा शक्ति को सौन्दर्य प्रदान करने के लिए उपयुक्त शब्दों का चयन है।

(ख) कला पक्ष

• ‘तुलसी’ जी की कवित्त में साहित्यिक ब्रज भाषा के द्वारा उनकी सिद्धता का पता चलता है।
• लगभग सभी पंक्तियों में अनुप्रास अलंकार की सौन्दर्य बिखरा हुआ है।
• ऊँच-नीच, धरम-अधरम आदि में विरोधाभास अलंकार है।
• सवैया छन्द का सुन्दर प्रयोग है।
• तुकबन्दी चेटको, अखेट की बैठकों, पेटकी आदि तथा नाद सौन्दर्य द्वारा वता का गुण विद्यमान है।
• राम की भक्ति भावना पर बल दिया गया है।

खेती न किसान को, भिखारीको न भीख, बलि,
वनिकको यनिज, न चाकर को चाकरी।
जीविका विहीन लोग सीद्यमान सोच बस,
कहें एक एकन सौ कहाँ जाई. का करी?
बेदहूँ पुरान कही, लोकहूँ बिलोकिअत,
साँकरे सबै पै राम! रावरे कृपा करी ।
दारिद दसानन दबाई दुनी, दीनबंधु !
दुरित-दहन देखि तुलसी हहा करी ॥

प्रसंग:- पूर्ववत् इन पंक्तियों में तुलसी जी मुगल काल में समाज की आर्थिक व दयनीय स्थिति का वर्णन करते है। समाज की दशा, हर वर्ग के लोगों में अशान्ति व विडम्बना को ठीक करने के लिए तुलसी जी केवल भक्ति का मार्ग दिखाते हैं।

व्याख्या:- तुलसी जी कहते हैं कि मुगलों के शासन में सभी वर्ग के लोग दुःखी थे। उनके अत्याचारों को सहन कर रहे थे। समाज की आर्थिक दशा बहुत सोचनीय थी। गरीब किसान जी-जान से मेहनत करके भी खेती से पेट नहीं भर सकता था अर्थात किसान को उसकी खेती नहीं (फसल) मिलती थी, लोग इतने गरीब थे कि भिखारी को भी भीख नहीं मिलती थी। ‘तुलसी’ जी कहते हैं कि व्यापारियों को व्यापार नहीं करने दिया जाता था और नौकरों को उनकी मजूरी नहीं मिलती थी। इस दयनीय व जीविका के बिना दुःखी सभी वर्गों के लोग यही बात सोच रहे हैं और वो सभी एक-दूसरे से पूछ रहे हैं कि इस शोषण व अत्याचार से छुटकारा पाने के लिए अब वो कहाँ जाए या क्या करें ताकि उनकी जीवन प्रक्रिया चल सकें। वे अपनी आजीविका के लिए अनेक कष्टों को सहन कर रहे है।

तुलसीदास जी राम की भक्ति पर बल देते हुए कहते हैं कि इन सभी आजीविका विहीन लोगों की विपत्ति को दूर केवल एक तरीके द्वारा किया जा सकता है। जिसको वेदों व पुराणों में बार-बार कहा गया है। लोगों ने उसकी महिमा को अनेकों बार देखा है। जब सब पर संकट व विपतियों का समय आता है तो प्रभु राम उस समय अपनी कृपा से ही वो संकट दूर कर सकते हैं। हे प्रभु! वो आप ही हो, जिन्होंने निर्दय रावण की बुरी नीतियाँ व अन्याय को नष्ट किया था। हे राम तुम ही सब दीन-दुखियों के स्वामी हो। हे प्रभु! तुम ही पापों को नष्ट करने वाले हो अर्थात हे राम तुम्हीं को यह दुनिया पाप नाशक मानती है। इसलिए ‘तुलसी’ हमेशा तुम्हारे नाम की ही हाहाकार करता है। तुम्हारे नाम की ही ठहाका लगाता रहता है।

काव्य सौन्दर्य

क) भाव पक्ष

• सभी प्रकार की आर्थिक व सामाजिक विपत्तियों को दूर करने का एक मात्र सुझाय राम की मति को ही माना है।
• उपयुक्त शब्द चयन से अभिधा शक्ति के सौन्दर्य में वृद्धि हुई है।

(ख) कला पक्ष

• समासयिक, साहित्यिक ब्रज भाषा को प्रवाहमयता सर्वत्र विद्यमान है।
• सवैया व कवित्त छन्द का प्रयोग किया गया है।
• लगभग सभी पंक्तियों में अनुप्रास अलंकार की सौन्दर्य छटा बिखरी हुई है।
• तत्सम् प्रधान शब्दावली का भावात्मकता व सौन्दर्य के लिए उचित प्रयोग है।
• नाद सौन्दर्य से गेयता आई है।
• प्रश्न शैली का प्रयोग रहस्यात्मक रूप से हुआ है। प्रभु राम की महिमा के उदाहरणों में उदाहरण अलकार है।
• वीर रस को प्रमुखता प्रदान की गई है।

धूत कहौ, अवधूत कहौ, रजपूतू कहौ, जोलहा कहौ कोऊ
काहू की बेटीसों बेटा न व्याहब, काहूकी जाति बिगार न सोऊ॥
तुलसी सरनाम गुलामु है राम को, जाको रुचे सो कह कछु ओऊ।
मागि के खैबो, मसीत को सोइबो, लैबोको एक न दैबको दोक।

प्रसंग: प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी हिन्दी की पाठ्य पुस्तक ‘आरोह’ में संकलित कविता ‘कवित्त और सर्वेया’ सं उद्घत है। मूल रूप से यह ‘गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा रचित ग्रन्थ ‘कवितावली’ से ली गई है। इन कवित्त पक्तियों के माध्यम से ‘तुलसी’ जी अपने बारे में कुछ महत्त्वपूर्ण बातें बताते हुए एक संत के गुणों का व्याख्यान करते हैं व्याख्या ‘तुलसी’ जी अपने बारे में लोगों को सोचते हुए पाते हैं तो कहते हैं कि तुम लोग मुझे चालाक या दगाबाज कहो या फिर कोई साधु संन्यासी कहो तुम मुझे राजपूत के समान वीर व साहसी या जुलाई के समान भी मान सकते। हो, तुम लोग मुझे कोई भी मान सकते हो। तुलसी जी कहते हैं कि मैंने किसी को बेटे या बेटी का विवाह या रिश्ता नहीं करवाया है और न ही किसी को अपनी जाति धर्म बदलने को मजबूर किया है। भावार्थ यह है कि एक भक्त को सांसारिक बातों व किसी बात का कोई डर नहीं होता है। वह तो सभी नामों के होते हुए भी सिर्फ अपनी भक्ति में लीन रहता है और संसार के दुःखों को छोड़कर आराम से सोता है।

तुलसी जी कहते हैं कि तुलसी का दूसरा नाम ही राम का गुलाम है जिसकी रुचि जिसमें होती है वह उसी की बातें करता रहता है। अर्थात् जिसको जो विषय रूचिकर लगता है वह उसी के बारे में सोचता रहता है और अन्य के प्रति उसका रुझान नहीं जाता। तुलसी जी कहते हैं हम तो एक रामभवत हैं जो माँग कर अपने पेट को भरते हैं। अर्थात अन्न आदि माँग कर खा लेते हैं और बिना किसी सांसारिक तनाव व विपत्तियों के मस्ती में रात को सो जाते हैं। इस संसार में में किसी से लेनदार नहीं हूँ और न ही मैंने किसी दूसरे का कुछ देना है। अर्थात लेन-देन के झमेले से दूर हूँ।

‘तुलसी’ जी एक सन्त की बेफिकरी, मस्त मौलापन व लेन-देन के चक्कर में न पड़ने वाले गुणों का व्याख्यान करते हैं।
इसलिए वो कहते हैं कि उन्हें न किसी से एक रूपया न लेना और न किसी को देने हैं। इसलिए वे मस्ती व चिन्ता रहित जीवन को जी रहे हैं।

काव्य सौन्दर्य

(क) भाव पक्ष

• तुलसी जी ने मस्त मौला व फक्कड़ जीवन जीते हुए राम की सच्ची भक्ति पर बल दिया है।
• अपने आप को अनेकों नामों से पुकारा है।
• तुलसी ने अपने माध्यम से एक सच्चे सन्त के गुणों की लाक्षणिकता पर बल दिया है।

(ख) कला पक्ष

• कवित्त छन्द का भाव प्रवाहपूर्ण प्रयोग है।
• सभी पंक्तियों में कहाँ-कोऊ, बेटी-बेटा कहे- कडुतमा देवको दौड आदि में अनुप्रास अलंकार को हटा छाई है। तर के बाद शब्द की पुनरुक्ति हुई है।
• विरोधाभास अलंकार प्रयोग हुआ है।
• तुलसी जी ने सरल, साहित्यिक भाषा सुन्दर रूप का प्रयोग किया है।
• काव्यगत शैली में तुकबन्द व नाद सौन्दर्य के कारण यता विद्यमान है।
• संस्कृतनिष्ठ शब्दावली का भी उचित प्रयोग है।
• ‘लैयाको एक न दैबको दोका में मुहावरे का प्रयोग काव्य सौन्दर्य में वृद्धि करता है।

लक्ष्मण मूर्च्छा और राम का विलाप

दोहा

तव प्रताप उर राखि प्रभु जैहऊ नाथ तुरंत।
अस कहि आयसु पाइ पद बंदि चलेउ हनुमंत।
भरत बाहु बल सील गुन प्रभु पद प्रीति अपार
मन महुँ जात सराहत पुनि पुनि पवनकुमार ॥

प्रसंग:- प्रस्तुत दोहे हमारी हिन्दी की पाठ्य पुस्तक ‘आरोह’ में संकलित कविता ‘लक्ष्मण मूर्च्छा और राम का विलाप से उद्धृत है। मुख्य रूप से यह ‘रामचरित मानस’ से लिया गया है। इसमें रामभक्त कवि ‘गोस्वामी तुलसीदास जी ने संजीवनी लाते समय हनुमान व भरत की वार्तालाप का वर्णन किया है।

सन्दर्भ:- यह दोहा छन्द उस समय का है जब हनुमान जी संजीवनी का पता न होने पर सारे पर्वत को उठाकर अयोध्या नगरी के ऊपर से गुजरे तो भरत ने उन्हें राक्षस समझकर बाण से घायल कर दिया और बाद में उन्हें रामभक्त पाने पर उनका स्वागत किया। इसके बाद जब हनुमान जी वहाँ से जाने लगे तो उनके यह शब्द हैं

व्याख्या:- इन पंक्तियों में श्री हनुमान जी भरत जी को कहते हैं कि आपके प्रभाव को हृदय में धारण करके मैं प्रभु श्री रामचन्द्र जी की कृपा से तुरन्त ही बड़े वेग के साथ जाऊँगा। यह कहकर हनुमान जी ने भरत जी से आज्ञा ली और उनके चरणों पर शीश नवाकर चल पड़ भरत जी से आज्ञा पाकर जब हनुमान जी संजीवनी लेकर रास्ते में जा रहे हैं तो उनके मन में भरत जी श्री रामचन्द्र जी और अपने बारे में विचार करते हैं। हनुमान जी भरत जी के भुजाओं के पराक्रम, उनके शील गुण और श्री रामचन्द्र जी के चरणों में उनके (भरत जी के) अटल प्रेम की मन-ही-मन बारम्बार सराहना करते हुए जा रहे हैं।

काव्य सौन्दर्य

(क) भाव पक्ष

• तुलसीदास जी ने इस दोहे में भरत व हनुमान जी दोनों के अटूट प्रेम व भक्ति को राम के प्रति दर्शाया है।
• भरत द्वारा अतिथि सत्कार व हनुमान के दास्य भाव का वर्णन किया है।
• अभिधा शब्द शक्ति का प्रयोग चुनिंदा शब्दों में सराहनीय है।

(ख) कला पक्ष

• तुलसी ने ठेठ अवधी भाषा का साहित्यिक रूप सुमधुर व प्रभावपूर्ण ढंग से किया है।
• प्रस्तुत पंक्तियाँ दोहा छन्द शैली में पूर्ण सफल है।
• पाई पद, बाहु बल, प्रभु-पद प्रीति, मन-मन महुँ तथा
• पुनि-पवन में अनुप्रास अलंकार की छवि ‘सौन्दर्यात्मक हैं।
• पुनि-पुनि में पुनशक्ति प्रकाश अलंकार विद्यमान है।
• बाहु, प्रीति आदि शब्दों में तत्सम् शब्दावली का प्रयोग किया गया है।

उहाँ राम लछिमनहि निहारी। बोले वचन मनुज अनुसारी
अर्ध राति गई कपि नहि आया राम उठाइ अनुज उर लायक।।
सकहु न दुखित देखि मोहि काऊ। बंधु सदा तव मृदुल सुभाकः।।
मम हित लागि तजेहु पितु माता सहेहु विपिन हिम आतप वाता॥
सो अनुराग कहाँ अब भाई उठहु न सुनि मम वच विकलाई ।
जी जनते वन बंधु विछोहू पिता वचन मनते नहि ओहू।

प्रस्तुत:- दोहे हमारी हिन्दी की पाठ्य पुस्तक ‘आरोह’ में संकलित कविता ‘लक्ष्मण मूर्च्छा और राम का विलाप’ प्रसंग से ली गई है। जो मूल रूप से गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित हिन्दी के बाईबल ‘रामचरित मानस’ से उद्धृत है। इन दोहों में तुलसी जी ने राम की उस मनोदशा का वर्णन किया है जब लक्ष्मण मूर्छा पर से हनुमान जी द्वारा लाई जाने वाली संजीवनी का इन्तजार कर रहे हैं। इस समय राम जी की दशा एक भगवान रूप में न होकर एक व्याकुल मनुष्य के रूप में हो रही है।

व्याख्या – तुलसीदास जी कहते हैं कि मूर्च्छित लक्ष्मण को देखकर श्री रामचन्द्र जी का मन चिंतित दशा से युक्त है। लक्ष्मण को कपिदल में मूर्च्छित देखकर श्री रामचन्द्र जो ऐसे वचन कहने लगे जो मनुष्य के कहने योग्य है। भाव यह है कि श्री राम जी तो परमात्मा हैं, वे सब जानते हैं। लक्ष्मण का मूर्च्छित होना उनकी ही लीला मात्र ही था। इस हेतु ऐसे वचन बोले कि जैसे कोई साधारण मनुष्य अपने भाई को आघात पहुँचने पर कहता हो। श्रीराम जी कहते हैं कि आधी रात तो हो चुकी हनुमान नहीं आए। यह कहकर श्री रामजी ने लक्ष्मण को उठा कर हृदय से लगा लिया और कहने लगे

हे भाई! तुम्हारा स्वाभाव सदा ही से नम्र रहा है, तुम कभी मुझे दुखित नहीं देख सकते थे। तुमने मेरे ही कारण अर्थात् मेरे लिए ही माता-पिता त्याग दिए, उन्हें छोड़ मेरे साथ आए और वन में कड़ी ठंड, धूप और वायु को सहा है। मूर्च्छित लक्ष्मण को गले से लगाकर श्रीराम जी उसके त्यागों, प्यार व भातृभाव को प्रकट कर रहे हैं।

श्री रामचन्द्र जी अपने व्याकुल मन द्वारा प्रश्न करते हैं। हे भाई! वह तुम्हारा प्यार प्रेम अब कहाँ गया? तुम मेरे वचनों की व्याकुलता देखकर क्यों नहीं उठ बैठते? श्रीराम जी लक्ष्मण की आज्ञा पालन की आदत को याद करते हुए इन प्रश्नों को जानना चाहते हैं। भ्रातृ प्रेम में वे कहते हैं कि यदि मैं यह जानता कि वन में भाई बिछुड़ जाएगा तो मैं निश्चय हो पिता जी के वचनों का पालन करता परन्तु तुम्हारा कहा न मानता भाव यह है कि श्री दशरथ जी ने श्री रामचन्द्र जी को बनवास दिया था न कि लक्ष्मण को श्री रामचन्द्र जी ही तो लक्ष्मण की विनय सुनकर उन्हें अपने साथ लाये थे। इसलिए वो ऐसा कह रहे हैं।

काव्य सौन्दर्य

(क) भाव पक्ष

• राम जी के व्याकुल व अशांत मन की दशा का मार्मिकता पूर्ण वर्णन तुलसी जी ने इन दोहों में किया है।
• लक्ष्मण के चारित्रिक गुणों भक्ति भाव, दास्य भाव, आज्ञा पालन, त्याग भावना, आतू प्रेम का श्रीराम जी द्वारा व्याख्यान अत्यंत मनोहारी रूप में किया है।
• अभिधा शब्द शक्ति का भावपूर्ण ढंग से सुन्दर प्रयोग है।

(ख) कला पक्ष

• तुलसी द्वारा देठ अवधी भाषा का सुमधुर व प्रवाहमयी रूप में प्रयोग हुआ है।
• दोहा छन्द व गति, लय, तुक द्वारा काव्य में गेयता गुण विद्यमान है।
• करुण रस का सुन्दर प्रयोग है।
• बोले बचन, दुखित देखि, बच-विकलाई आदि में अनुप्रास अलंकार का सुन्दर प्रयोग है।
• अर्थ, मनुज, बंधु आदि अनेक शब्दों में तत्सम प्रधान शब्दावली का औचित्य है।
• राम द्वारा पूर्व दिप्ती शैली का सुन्दर प्रयोग करके तुलसी जी ने समन्वय का सुन्दर उदाहरण दिया है।

सुत बित नारि भवन परिवारा होहिं जाहि जग बारहिं बारा ॥ अस विचारि जिये जागहु ताता। मिलइ न जगत सहोदर भ्राता ।जथा पंख बिनु खग अति दीना मनि बिनु फनि करिबर कर हीना ।। अस मम जिवन बंधु बिन तोही जी जड़ देव जिआवै मोही ।। जैह अवध कवन मुह लाई। नारि हेतु प्रिय भाइ गँवाई ।।
बरु अपजस सहते जग माहीं। नारि हानि बिसेष छति नाहीं ॥

प्रसंग:- पूर्ववत्। इन पंक्तियों में तुलसीदास जी ने कुछ सुन्दर उदाहरणों द्वारा भ्रातृ प्रेम का अलौकिक वर्णन किया है और
भाई के खोने की श्रीराम जी की मनोस्थिति का अत्यन्त मार्मिक चित्रण प्रस्तुत किया है।

व्याख्या:- तुलसीदास जी कहते हैं कि संसार में पुत्र, धन, स्त्री, घर व परिवार के लोग बार-बार मिलते और बिछुड़ते रहते हैं। ऐसा हृदय में विचार कर हे प्यारे चैतन्य हो जाओ क्योंकि संसार में एक पेट से उत्पन्न भाई भी इस प्रकार हेलमेल से नहीं रहते हैं जिस प्रकार से आपका बर्ताव हमारे प्रति रहा है। भाव यह है कि तुम्हारे समान भ्रातृ प्रेम अभी तक देखने में नहीं आया।
तुलसी जो पक्षी, सर्प व हाथी के उदाहरणों द्वारा राम की मनोदशा का मार्मिक वर्णन करते हुए कहते हैं कि जिस प्रकार
से पक्षी बिना पंखों के अत्यन्त दयनीय स्थिति में आ जाता है और बिना मणि के फणियर सर्प दुःखी होता है और बिना सूंड के हाथों दुखित हो जाता है उसी प्रकार हे भाई तुम्हारे बिना मेरा जीवन है। भाव यह है कि तुम्हारे बिना मेरा जोवन नहीं होना चाहिए यदि कदाचित् विधाता ने मेरे प्राण रहने दिए तो मैं अवश्य ही असहाय हो जाऊँगा। अगले दोहे में तुलसी दास जी राम के उन विचारों को प्रकट कर रहे हैं जिनमें उन्हें भाई की हानि अन्य सभी हानियों से बड़ी लग रही है। स्त्री के निमित्त (कारण) अपने प्यारे भाई को खोकर मैं अयोध्या में कौन सा मुँह लेकर जाऊँगा। भाव यह है कि लज्जा के मारे अयोध्या वासियों को अपना मुँह न दिखाया जाएगा चाहे अप कीर्ति संसार में भले ही सह लेता, क्योंकि स्त्री की हानि कोई बड़ी हानि नहीं है।

काव्य सौन्दर्य
(क) भाव पक्ष
• इन दोहों से पता चलता है कि रामचन्द्र जी के हृदय में भ्रातृ प्रेम कूट-कूट कर भरा हुआ है।
• अभिधा शब्द शक्ति का भावात्मकता की वृद्धि हेतु बहुत सुन्दर प्रयोग है।

(ख) कला पक्ष
• तुलसी जी ने अवधी भाषा के प्रवाहपूर्ण साहित्यिक रूप का वर्णन किया हैं।
• तत्सम् प्रधान शब्दावली का प्रचुर मात्रा में प्रयोग है।

(आरोह xii) 64

• करियर- कर, बंधु-बिनु, वारहिबारा आदि में अनुप्रास अलंकार का प्रयोग है।
• पक्षी सर्प व हाथी द्वारा उदाहरण अलंकार द्वारा प्रतीकात्मक भाव स्पष्ट हुआ है।
• रामजी द्वारा रस का वर्णन है।

अब अपलोकु सोकु सुत तोरा सहिहि निठुर कठोर डर मोरा।।
निज जननी के एक कुमारा। तात तासु तुम्ह पान अधारा
सौपेसि मोहि तुम्हहि गहि पानी सब विधि सुखद परम हित जानी।।
उतरू काह देह तेहि जाई। उठि किन मोहि सिखावहु भाई।।
बहु विधि सोचत सोच विमोचनः प्रवत सलिल राजिव दल लोचन ।।
उमा एक अखंड रघुराई। नर गति भगत कृपाल देखाई ॥

प्रसंग:- पूर्ववत्। गोस्वामी जी ने इन पक्तियों में राम जी के दुःखद हृदय की स्थिति का वर्णन किया है तथा भ्रातृ प्रेम का
अनुपम दृश्य प्रस्तुत किया है। वे मनुष्य रूप में सभी मोह और भावों को निभाते हुए मर्यादा का रूप धारण किए हुए हैं।

व्याख्या:- तुलसीदास जी कहते हैं कि रामचन्द्र जो लक्ष्मण मूर्च्छा पर अति व्याकुल हैं और अपनी माताओं के बारे में
सोचते हैं कि अब यह मेरा वज्र हृदय इस अपयश और तुम्हारे दुःख को सहन करेगा। है प्यारे! अपनी माता का जो मैं अकेला पुत्र हूँ, लेकिन उसके प्राणों के आधार तुम थे। श्री रामचन्द्र जो अयोध्या में माताओं का स्मरण करते हुए कहते हैं कि सुमित्रा माता जी ने तुम्हारा हाथ पकड़कर मुझे सौंपा था, यह जानकर कि मैं तुम्हारा सब प्रकार से सुखदाई और बड़ा हितैषी हूँ। हे भाई! तुम उठकर मुझे यह समझ क्यों नहीं कि सुमित्रा जी को क्या उत्तर दूँगा? भाव यह है कि बिना लक्ष्मण के श्री रामचन्द्र जी अपने आपको अचेदनव लज्जित मान रहे हैं।

अन्तिम दोहे में महादेव जी पार्वती से कहते हैं कि सोच को छुड़ाने वाले प्रभु स्वतः नाना प्रकार सोचकर रहे थे और अपने कमल पत्र के समान तेज व सुन्दर नेत्रों से आँसू बहा रहे थे। हे पार्वती! श्री राम चन्द्र जो तो पूर्ण है अद्वैत है इस साली लीला से उन दयालु ने तो अपने भक्तों को मनुष्यों की दशा दिखाई।
तुलसीदास जी कहते हैं कि श्रीराम चन्द्र जी राम विलाप में एक साधारण दुःखद व व्याकुल हृदय वाले मनुष्य की छवि प्रस्तुत करते हैं जो अपने भाई के शोक में भावुकता में वह कर साधारण मनुष्य की तरह विलाप कर रहा है।

काव्य सौष्ठव

(क) भाव पक्ष
• तुलसीदास जी ने श्री राम चन्द्र जी को एक प्रभु के रूप में न लेकर उनके द्वारा एक आदर्श भाई को मर्यादा तथा भ्रातृ प्रेम का रूप प्रकट किया है।
• पहले दो दोहों में अभिधा शब्द शक्ति तथा तीसरे में लाक्षणिकता का सुन्दर प्रयोग किया गया है। आखिरी दोहे में को रामचन्द्र जी के दोनों रूप लौकिक व अलौकिक प्रकट हुए हैं।

ख) कला पक्ष

• संस्कृतनिष्ठ शब्दावली के साथ ठेठ अवधी भाषा का साहित्यिक रूप का सुन्दर प्रयोग है।
• दोहा छन्द शैली काव्य सौन्दर्य में वृद्धि करता है।
• अब-अप, सोकु सुत. तात तासु, बहु-विधि में अनुप्रास अलंकार है।
• राजिव दल लोचन में रूपक अलंकार प्रयुक्त हुआ है।
• करुण रस युक्त रामचन्द्र की मनोदशा का वर्णन किया गया है

सोरठा सोरठा

प्रभु प्रलाप सुनि कान बिकल भए बानर निकर
आइ गयउ हनुमान जिमि करुना मँह वीर रस ।।

प्रसंग:- प्रस्तुत सोरठा हमारी हिन्दी को पाठ्य पुस्तक ‘आरोह’ में संकलित कविता ‘लक्ष्मण मूच्छा और राम का विलाप
से लिया गया है। यह हिन्दी के बाईबल ‘रामचरित मानस’ से उद्धृत है जिसके रचयिता गोस्वामी तुलसीदास जी हैं। इसमें
श्रीराम की उस मनोदशा का वर्णन किया गया है जब लक्ष्मण मूर्च्छित हो जाते हैं और राम उसके वियोग में विलाप करने लगते हैं। व्याख्या तुलसीदास जी कहते हैं कि मूर्च्छित लक्ष्मण को देखकर श्रीराम ऐसे विलाप करने लगे जैसे कोई साधारण मनुष्य करता हो। प्रभु श्रीरामचंद्र जी का विलाप सुनकर वानरों के झुण्ड व्याकुल हो गये। उनके विलाप सुनकर सभी वानर भी धैर्य खोते जा रहे थे कि तभी उसी समय हुनमान जी संजीवनी बूटी लेकर आ गये, तो ऐसा लगा जैसे करुणा में वीर रस आ गया हो।

काव्य सौष्ठव

(क) भाव पक्ष – तुलसीदास जी ने श्रीरामचंद्र के विलाप के समय हनुमान द्वारा संजीवनी बूटी लाना दर्शाकर वातावरण में करूणा के स्थान पर वीर रस का समावेश करके अपने काव्य-कौशल का परिचय दिया है।

(ख) कला पक्ष

• संस्कृतनिष्ठ शब्दावली के साथ साहित्यिक अवधी भाषा का सुंदर प्रयोग किया गया है।
• सोरठा छंद का प्रयोग काव्य में सौंदर्य की वृद्धि करता है।
• प्रभु प्रताप में अनुप्रास अलंकार का प्रयोग है।
• करुण रस का सुंदर प्रयोग किया गया है।

हरषि राम भेंटेड हनुमाना। अति कृतग्य प्रभु परम सुजाना ॥ तुरत बंद तब कीन्हि उपाई। उठि बैठे लछिमन हरशाई।।
हृदयं लाइ प्रभु भेटेड भ्राता। हरषे सकल भालु कपि खाता ।।
कपि पुनि वेद तहाँ पहुँचावा । जेहि बिधि तबहिं ताहि लड़ आवा।।
यह वृतात दसानन सुनेऊ। अति विषाद पुनि पुनि सिर धुनेऊ ।।
व्याकुल कुभकरन पहिं आवा विविध जतन करि ताहि जगावा ।।

प्रसंग:- प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी हिन्दी की पाठ्य पुस्तक ‘आरोह में संकलित रामभक्त कवि ‘गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा रचित हिन्दी को बाईबल ‘रामचरितमानस’ के लंकाकाण्ड से उद्धृत है। इन पंक्तियों में राम के विलाप के बाद जब हनुमान जो संजीवनी लेकर युद्ध क्षेत्र पर पहुँचते हैं तो श्रीराम व हनुमान जी की जो प्रसन्नता पूर्वक भेंट होती है उसका तुलसी जी ने बड़ा ही विनम्र वर्णन किया है।

व्याख्या:- तुलसीदास जी कहते हैं कि प्रभु श्री राम जी बड़े ही बुद्धिमान हैं और दूसरे द्वारा किए गए उपकार का बहुत ही बड़ा मानने वाले हैं इसलिए उन्होंने संजीवनी लेकर आए हनुमान जी से प्रसन्नतापूर्वक भेंट की। हनुमान जी द्वारा लाई गई औषधि का वैध जी ने तुरन्त उपयोग किया तो लक्ष्मण जी को उसी समय होश आ गया और वह प्रसन्नता पूर्वक उठ खड़े हुए।

जैसे ही लक्ष्मण जी संजीवनी के प्रभाव से उठकर खड़े हुए श्री राम चन्द्र जी ने उनको हृदय से लगाकर भेंट की जिसे देखकर सब रोछ और बानर के योद्धा प्रसन्न हुए। अर्थात् राम के अपने भाई के प्रति इतना प्रेम का अपार सागर देख सभी के हृदय में खुशी की लहर थी। फिर हनुमान जी ने सुखैन वैद्य को उनके उसी स्थान पर पहुँचा दिया जहाँ से हनुमान जी उनको लेकर आए थे। हनुमान द्वारा लाई गई संजीवनी से जब लक्ष्मण जो चैतन्य रूप में आ गए तो इस बात का व्याख्यान सुनकर रावण को अत्यन्त दुःख हुआ और दुःख के कारण उसने बारम्बार अपना माथा ठोका। इसी दुःख की व्याकुलता के कारण वह घबराता हुआ कुम्भकर्ण के पास गया और अनेक उपाय कर उसने उसे नींद से जगाया। रावण जब अपने अनेक यौद्धाओं को खो बैठा और उनके मूर्च्छित यौद्धाओं के दुबारा चैतन्य हो जाने पर अत्यधिक घबरा गया और अपने भाई कुम्भकर्ण को उठाता है जो छः महीने तक लगातार सोने वाला दानव था।



काव्य सौष्ठव

(क) भाव पक्ष – तुलसीदास जी ने इन पक्तियों के माध्यम से श्री राम जो के कृतन होने की तथा सेवक द्वारा भी उपकार को मानने की बात की महत्त्व दिया है साथ ही रावण जी के व्याकुल मन का वर्णन किया है। अभिधा शब्द शक्ति द्वारा संस्कृत युक्त शब्दावली को भावात्मकता प्रदान करने में सहायता मिली है।

(ख) कला पक्ष

• ठेठ अवधी भाषा के साहित्यिक रूप का तत्सम प्रधान पदावली में सौन्दर्यपूर्ण प्रयोग है।
• सोरठा छन्द शैली की महत्ता काव्य को पूर्ण विकसित करती है।
• करुण रस व भयानक रसों की प्रधानता है।
• प्रभु- परम तबहि-ताहि, आदि में अनुप्रास अलंकार का सुन्दर रूप से प्रयोग है।
• पुनि पुनि में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है।

जागा निसिचर देखिअ कैसा मानहुँ कालु देह धरि वैसा।।
कुंभकरन बुझा कहु भाई। काहे तब मुख रहे सुखाई ॥
कथा कही सब तेहि अभिमानी जेहि प्रकार सीता हरि आनी ॥ तात कपिन्ह सब निसिचर मारे। महा महा जोवा संघारे ॥
दुर्मुख सुररिपु मनुज अहारी। भट अतिकाय अकपन भारी।। अपर महोदर आदिक बीरा परे समर महि सब रनधीरा ॥

प्रसंग :- पूर्ववत्! इन पंक्तियों में ‘तुलसी’ जी ने उस समय की स्थिति का वर्णन किया है जब रावण व्याकुल हृदय से कुम्भकर्ण को उठाते हैं। कुम्भकर्ण के विशालकाय शरीर के वर्णन के साथ युद्ध में मारे गए वीर योद्धाओं का भी व्याख्यान किया है।

व्याख्या:- तुलसीदास जी कहते हैं कि जब रावण अनेक उपायों द्वारा कुम्भकर्ण जी को उठाता है तो कुम्भकर्ण नोंद से जागा ऐसा दीख पड़ता था मानो काल ही देह धारण करके आ गया है। अर्थात कुम्भकर्ण का शरीर इतना विशाल व भयभीत कर देने वाला था कि मृत्यु के समान प्रतीत होता था। कुम्भकर्ण द्वारा असमय नींद के खोलने के बाद जब वह रावण के पास पहुँचा तो उसके चिन्तित चेहरे को देखकर वह उनसे पूछने लगा है भाई। तुम्हारे मुख क्यों (मुरझा) कुम्हला रहे हैं? अर्थात तुम उदास क्यों हो?

कुम्भकर्ण के पूछे जाने पर उस घमंडी ने जिस प्रकार सीता का हरण किया था सो सब हाल कह सुनाया और कहा कि हे भाई! बन्दरों ने बहुत सारे राक्षसों को मार डाला है तथा बड़े-बड़े योद्धाओं का भी नाश कर दिया है।

रावण अपने सभी योद्धाओं जिनको युद्ध में वीरगति मिल चुकी थी सभी के बारे में बारी-बारी से कुम्भकर्ण को बताता हुआ कहता है कि दुर्मुख, सुररिपु और मनुजाहारी, अतिकाय तथा अकम्पन सरीखे बड़े बड़े यौद्धा और भी महोदर आदि रणकुशल वीर लड़ाई से जूझ गए। रावण अपने अनेक वीरों की मृत्यु का बदला लेने की भावना को कुम्भकर्ण के सामने प्रस्तुत करता है और उसे युद्ध में जाने के लिए कहता है।

काव्य सौन्दर्य

(क) भाव पक्ष

• तुलसी जी ने निशाचर कुम्भकर्ण की तुलना मृत्यु से करके उसको महत्ता प्रदान की है।
• रामायण के युद्ध में वीर गति प्राप्त कुछ महान योद्धाओं के पराक्रम का वर्णन किया गया है तथा साथ ही रावण भय का व्याख्यान भी है।
• कालु देह धरि में लाक्षणिकता का प्रयोग है तथा अन्य सभी पंक्तियों में अभिधा शब्द-शक्ति के द्वारा काव्य के भावात्मक पक्ष को बल मिला है।

ख) कला पक्ष

• तुलसी ने साहित्यिक ठेठ अवधी का प्रवाहमयी रूप प्रदान किया है।
• सोरठा छन्द शैली का सौन्दर्यपूर्ण वर्णन है।
• ‘मानहुँ कालु देह’ में उत्प्रेक्षा अलंकार है।
• कथा-कहाँ, अतिकाय, अकपन आदि शब्दों में अनेक बार अनुप्रास अलंकार का सुन्दर प्रयोग है।
• महा-महा मे पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है।
• वीर, रौद्र व करूण रेसों का समन्वय तुलसी के समन्वय की भावना को उजागर करती है।
• संस्कृत प्रधान शब्दावली का भी उचित रूप में प्रयोग हुआ है।
• तुक मन्दता व नाद सौन्दर्य से पूर्ण सोरठा छन्द गेयता गुण से विद्यमान है।

दोहा

सुनि दसकघर बचन तब कुंभकरन बिलखाना।
जगदवा हरि आनि अब सठ चाहत कल्यान ।।

प्रसंग:- प्रस्तुत ‘दोहा हमारी हिन्दी को पाठ्य पुस्तक ‘आरोह’ में संकलित ‘गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा कृत कविता ‘दादा’ से उद्धृत है। मूल रूप से यह ‘रामचरितमानस’ के ‘लकाकाण्ड’ से लिया गया है। इस दोहे में उस समय का वर्णन है जब युद्ध के परिणामों से घबराकर रावण अपने भाई कुम्भकर्ण को उठाता है तथा युद्ध का सारा वृतान्त उसे सुनाता है। तब कुम्भकर्ण अपने (अग्रज) भाई रावण के कार्य पर खेद करता हुआ ये शब्द कहता है

व्याख्या:- तुलसीदास जी कहते हैं कि जब कुम्भकर्ण को रावण के लज्जापूर्वक कार्य के बारे में उससे सुना तो कुम्भकर्ण जो अपने भाई को समझाते हुए कहते हैं रे मूर्ख जगतकारिणी सीता जी का हरण करके अब भलाई चाहता है। अर्थात जब वह उसे युद्ध में जाने के लिए और अधर्म का साथ देने के लिए कहता है तो वह युद्ध के लिए तैयार हो जाता है पर रावण को कहता है कि अब जो वह कल्याण चाहता है वह इस लज्जापूर्ण कार्य के बाद संभव नहीं है।

काव्य सौन्दर्य
क) भाव पक्ष
• काल रूप के समान होने पर भी कुम्भकर्ण सीता हरण के कार्य पर रावण को खेद प्रकट करता है और उसे रावण के कल्याण को कोई आशा नहीं है। के
• भाव सौन्दर्य लिए अभिधा शब्द शक्ति के द्वारा चुनिंदा शब्दों का प्रयोग किया गया है।

ख) कला पक्ष
• अवधी भाषा का साहित्यिक प्रवाहमयी प्रयोग काव्य सौष्ठव को बढ़ाता है।
• दोहा छन्द शैलों का प्रयोग सुन्दर ढंग से हुआ है।
• नाद सौन्दर्य के कारण गेयता गुण आया है।
• संस्कृत प्रधान शब्दावली का भाव और प्रवाह के लिए मनोहारी प्रयोग हुआ है। क्रोध के कारण रौद्र व वीभत्स रस (घृणा से) का प्रयोग है।

Last Paragraph:- I Hope Your Summary of Kavitavali Uttarakhand and Lakshaman Murcha Aur Ram Ka Vilap Class 12 Chapter 8 Problem was Resolved by our Articles. We also thanking you for giving your precious time. Please visit again

Leave a Comment